अंधानुकरण (अंधभगति )
अधिकांश लोग तो भेड़ों के झुंड के समान हैं। अगर आगे की एक भेड़ गड्ढे में गिरती है तो पीछे की दूसरी सब भेड़ें भी गिरकर अपनी गर्दन तोड़ लेती हैं। इसी तरह समाज का कोई मुखिया जब कोई बात कर बैठता है तो दूसरे लोग भी उसका अनुकरण करने लगते हैं, और यह नहीं सोचते कि वे क्या कर रहे हैं।
अज्ञान
अज्ञान से मुक्त होकर ही हम पाप से मुक्त हो सकते हैं। अज्ञान उसका कारण है, जिसका फल पाप है। अपने चारों ओर हम जो अशुभ तथा क्लेश देखते हैं, उन सबका केवल एक ही मूल कारण है-अज्ञान! मनुष्य को ज्ञान-लोक दो, उसे पवित्र और आध्यात्मिक बल-संपन्न करो और शिक्षित बनाओ, तभी संसार से दुःख का अंत हो पाएगा, अन्यथा नहीं।
अतीत
पुत्र शायद पिता की अपेक्षा अधिक गुणवान हो, परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि पिता कुछ भी नहीं है। पुत्र के मध्य पिता तो है ही, कितु और भी कुछ है। तुम्हारा वर्तमान ज्ञान यदि तुम्हारी बाल्यावस्था के ज्ञान से अधिक हो, तो तुम अभी अपनी बाल्यावस्था को घृणा की दृष्टि से देखोगे? तुम क्या अपनी अतीतावस्था की बात को, वह कुछ नहीं है-कहकर उड़ा दोगे? क्या तुम समझते नहीं हो कि तुम्हारी वर्तमान अवस्था उस बाल्यकाल के ज्ञान के साथ कुछ और का भी योग है।
अद्वैत (अनोखा )
चाहे हम उसे वेदांत कहें या और किसी नाम से पुकारें, परंतु सत्य तो यह है कि धर्म और विचार में अद्वैत ही अंतिम शब्द है, और केवल उसी के दृष्टिकोण से सब धर्मों और संप्रदायों को प्रेम से देखा जा सकता है। हमें विश्वास है कि भविष्य के सभ्य मानव-समाज का यही धर्म है! अन्य जातियों की अपेक्षा हिंदुओं को यह श्रेय प्राप्त होगा कि उन्होंने इसकी सर्वप्रथम खोज की। इसका कारण यह है कि वे अरबी और हिब्रू दोनों जातियों से अधिक प्राचीन हैं। परंतु साथ ही व्यावहारिक अद्वैतवाद का-जो समस्त मनुष्य-जाति को अपनी ही आत्मा का स्वरूप समझता है तथा उसी के अनुकूल आचरण करता है-विकास हिंदुओं में सार्वभौमिक भाव से होना अभी भी शेष है।
अनासक्त (अलग या दूर रहनेवाला)
अनासक्त होओ, कार्य होते रहने दो-मस्तिष्क के केंद्र अपना-अपना कार्य करते रहें, निरंतर कार्य करते रहो, परंतु एक लहर को भी अपने मन पर प्रभाव मत डालने दो! संसार में इस प्रकार कर्म करो, मानो तुम एक विदेशी पथिक हो, पर्यटक हो। कर्म तो निरंतर करते रहो परंतु अपने को बंधन में मत डालो-बंधन भीषण है! संसार हमारी निवास-भूमि नहीं है, यह तो उन सोपानों में से एक है, जिनमें से होकर हम जा रहे हैं।
अनासक्ति ही समस्त योग-साधना की नींव है। हो सकता है कि जिस मनुष्य ने अपना घर छोड़ दिया है, अच्छे वस्त्र पहनना छोड़ दिया है, अच्छा भोजन करना छोड़ा दिया है और जो मरुस्थल में जाकर रहने लगा है, वह भी एक घोर विषयासक्त व्यक्ति हो। उसकी एकमात्र संपत्ति-उसका शरीर ही उसका सर्वस्व हो जाए और वह उसी के सुख के लिए सतत प्रयत्न करे! कामना के वटवृक्ष को अनासक्ति के कुठार के द्वारा काट डालो, ऐसा करने पर वह बिलकुल नष्ट हो जाएगा। वह तो एक भ्रम-मात्र है, और कुछ नहीं! ‘जिनका मोह और शोक चला गया है, जिन्होंने संगदोषों को जीत लिया है, केवल वे ही ‘आजाद’ या मुक्त हैं।
अनुभव
समस्त मानव-ज्ञान अनुभव से उत्पन्न होता है, अनुभव के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार से हम कुछ भी जान नहीं सकते। हमारी सारी तर्कना सामान्यीकृत अनुभव पर आधारित है, हमारा सारा ज्ञान सामंजस्यपूर्ण अनुभव ही है।
अनुयायी
भले ही जीवन-भर में मुझे केवल आधे दर्जन स्त्री-पुरूष ही अनुयायी मिलें, पर वे लोग सच्चे पुरुष और स्त्री हों, पवित्र और निष्ठावान हों! मुझे झुंड-के-झुंड अनुयायी नहीं चाहिए। झुंडों से क्या लाभ? संसार का इतिहास कुछ थोड़े दर्जन मनुष्यों से ही बना है। ऐसे मनुष्यों की गणना उँगलियों पर की जा सकती है। बाकी लोग तो निकम्मे और शोरगुल मचानेवाले ही थे।
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