एक फ़क़ीर की बद्दुआ ने बादशाह से भिखारी बना दिया, ये कहानी है आख़री मुग़ल बादशा के पौत्र की

कहते है एक फ़क़ीर की दुआ या बद्दुआ कभी खाली नहीं जाती 

ग़दर से एक साल पहले की बात है बहादुरशाह जफ़र के पोते जंगल में शिकार खेल रहे थे छोटी छोटी चिड़यो को गुलेल से गुल्ले मार कर मार रहे थे सामने से एक गुड़ीधारी फ़क़ीर आ निकला इसने बड़े शिष्टाचार से राजकुमारों को परनाम किया और राजकुमारों से हाथ जोड़कर कहा इन गूंगे जीवो को क्यों सताते हो इनकी भी जान है। बड़े राजकुमार को शर्म आयी और गुलेल छोड़कर चले गए। छोटे मिर्ज़ा नसीरुल्मुल्क  बिगड़ कर बोले जा रे जा दो टके के आदमी तू कौन होता है हमें रोकने वाला सर व शिकार सभी करते है। फ़क़ीर बोला हुज़ूर नाराज़ न हों शिकार ऐसे जीवो का करना चाहिए की एक जान जाये तो दस पांच लोगो का पेट भरे। मिर्ज़ा फ़क़ीर के बोलते ही आग बबूला हो गए और गुलेल में गुल्ला भर कर फ़क़ीर की टांगो में मारा फ़क़ीर मुह के बल गिर पड़ा। फ़क़ीर के गिरते ही दोनों राजकुमार अपने घोड़ो पर बैठ कर वहा से निकल पड़े फ़क़ीर घसीटता हुआ चलने लगा। और कहता जाता वह गद्दी क्यों कर आबाद रहेगी जिसके उत्तराधिकारी इतने कुरुर और पिशाच हो। परमात्मा तेरी भी टाँगे तोड़े तुझे भी ऐसे ही घिसटना पड़े।




बहादुरशाह जफ़र हुमायु के मकबरे में गिरफ्तार हो चुके थे। मुग़ल वंश का दीपक झिलमिला कर बुझ चूका था। इसी लूट खसोट में एक अंग्रेजी पहाड़ी कैंप पर मिर्ज़ा नसीरुल्मुल्क रस्सी से बंधे बैठे थे की एक हमदर्द पठान सिपाही दौड़ा हुआ आया और मिर्ज़ा जी के हाथ खोल दिए और कहा जाइये मेने आपके छुटकारे के लिए साहब से आज्ञा मांग ली है। मिर्ज़ा बिचारे पैदल कभी चले नहीं। वह सोच में थे की करे तो क्या करे। पठान को शक्रिया कह कर जंगल की और निकल पड़े। यह पता न था की जाये कहा.एक मिल चलने के बाद पैरों में छाले पड़ने लगे "जीब सुख गयी गले में कांटे पड़ने लगे। थककर एक पेड़ के नीचे बैठ गए। आँखों में आंसू और सोचने लगे परमात्मा यह क्या आपत्ति हम पर टूट पड़ी हम कहा जाये किधर हमारा ठिकाना। अपने आज़ादी के दिनों को याद करके रोते जाते। थोड़ी दूर पर एक बस्ती दिखाई दी। हिम्मत करके वहा जाने का मन बनाया लेकिन पैरों के छाले चलने न देते गिरते पड़ते मिर्ज़ा जी वहा पहुंचे। वहा का दर्शय अजीब था। एक पेड़ के निचे सेंकडो गाँव के लोग जमा थे और चबूतरे पर एक तेरहे साल की भोली भाली लड़की बैठी थी.जिसके चेहरे पर हवाईया उडी हुई थी. कानो से खून बह रहा था. और गाँव वाले खीली उड़ा रहे थे। जैसे ही मिर्ज़ा ने उस बच्ची को देखा बच्ची ने मिर्ज़ा को देखा दोनों की चीख निकल पड़ी। भाई बहन से और बहन भाई से लिपट कर रोने लगे। मिर्ज़ा नसीरुल्मुल्क की वह छोटी बहन थी. जो अपनी माता के साथ रथ में सवार होकर क़िले से क़ुतुब चली गयी थी। मिर्ज़ा को सपने में भी ख्याल न था की उसकी बहन इस मुसीबत में होगी। मिर्ज़ा ने बहन से पूछा आप यहां कैसे। वह रो कर बोली गाँव वालो ने हमे लूट लिया। नौकरों को मार डाला। माँ को दूसरे गाँव वाले  ले गए और मुझे यहां ले आए। इतना कह कर लड़की रोने लगी एक शब्द भी उसके मुह से न निकला। मजबूर राजकुमार ने अपनी बहन को सांत्वना दी और गाँव वालो से उन्हें छोड़ने की प्रार्थना की. मगर गाँव वाले मानने वाले कहा थे बिगड़ कर बोले अरे जा आया कहि से इसे बचाने वाला अब  तो ये हमारी दासी बनकर गाँव में रहे गी। 

मिर्ज़ा ने कहा चौधरियो कल तुम हमारी परजा थे और हम राजा। आज आँखे न फेरो। परमात्मा किसी के दिन न बिगाड़े। यदि दिन फिर गए तो माला माल कर देंगे। यह सुनकर गाँव वाले हसने लगे और कहने लगे ाओह तो आप राजा है। तब तो हम तुम्हे अंग्रेजो के हाथ बेचेंगे रकम भी अच्छी मिलेगी। ये बाते हो ही रही थी की अंग्रेजी सेना आ गयी। चार चौधरी और दोनों राजकुमार और राजकुमारी को पकड़कर ले गयी। 

मिर्ज़ा जी और बहन को बड़े अफसर के सामने पेश किया गया। साहब ने इनकी हालत देख कर इन्हे निर्दोष समझा और छोड़ दिया। दोनों छूट कर एक व्यापारी के यहां नौकरी करने लगे. लड़की व्यापारी के बच्चो को खिलाती और मिर्ज़ा जी घर का सामान बाज़ार से लाया करते। कुछ दिनों बाद मिर्ज़ा जी की बहन हेज़े के कारण मर गयी। और मिर्ज़ा जी इधर उधर नौकरी करते रहे। अंत में बिर्टिश सरकार ने इनकी पाँच रुपये मासिक पेंशन बाँध दी। 

कुछ सालो बाद दिल्ली के बाज़ार में एक बूढ़ा आदमी घिसटता फिरता दिखयी देता था जिसे लकवा हो चूका था इनके गले में एक झोली रहती थी। और भीक मांगते फिरते थे। जिन लोगो को इनका पता था वे तरस खा कर झोली में कुछ डाल देते थे। ये वो ही मिर्ज़ा नसीरुल्मुल्क और बहादुरशाहजफर के पोते थे.जिन्हे बरसो पहले एक फ़क़ीर ने बद्दुआ दी थी। सरकारी पेंशन बंद हो चुकी थी। और मिर्ज़ा भीक मांग कर अपना गुज़ारा कर रहे थे। कुछ दिनों के बाद मिर्ज़ा जी की भी मर्त्यु हो गयी। 

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