सन 1911 का समय था,ग़दर को बीते बहुत साल हो चुके थे , दिल्ली के दिन फिर गए थे। नए शहर की तैयारी होने लगी थी।
11 मई सन 1917 की बात है। दोपहर की धूप और प्राणो को सुखाने वाली गर्मी में , एक बूढ़ा ठेले वाला , खान बहादुर सेठ मोहमद हारून के भट्टे से ईंटे लेकर दिल्ली जा रहा था। बूढ़े के सर पर धूप पड़ रही थी मुँह पर रस्ते की धूल थी। पीछे से एक गाड़ी आ रही थी। ड्राइवर ने हॉर्न बजाया ,मगर बूढ़े ठेले वाले ने बहरे होने की वजह से कुछ न सुना और ठेले को लेकर सड़क पर ही चलता रहा। गाड़ी पास आकर ठेले से टकरा गई। ड्राइवर ने तुरंत गाड़ी को रोक लिया और देखा की कोई नुकसान तो नहीं हुआ। ठेले की टक्कर से गाड़ी में कोई नुकसान नहीं हुआ था।
इस मोटर गाड़ी में एक तरुण ,पंजाबी व्यापारी ,एक बाजारू स्त्री को लिए बैठा था। ठेले वाले को दीन ,बूढ़ा ,गरीब देखकर आपे से बहार हो गया। हाथ में एक कोड़ा लेकर गाड़ी से उतरा और ठेले वाले को मारने लगा। ठेले वाला बूढ़ा गरीब लाचार और बहरा था। मगर पता नहीं क्या खानदानी खून ने जोश मारा, चार कोड़े खाने के बाद उसने बैल हांकने वाला चाबुक निकाला और शराबी व्यापारी के सिर में ऐसा मारा की सिर से खून निकलने लगा। उसने बूढ़े पर फिर वार करना चाहा ,बूढ़े ने फिर एक चाबुक मुँह पर मारा। इतना सब कुछ देख कर गाड़ी में बैठी वेश्या रोने लगी और अपने आशिक़ को बुलाने लगी। यह सब होने के बाद व्यापारी और ड्राइवर गाड़ी में बैठ कर ठेले वाले को गाली देते हुए वहाँ से चले गए। बूढ़ा चुपचाप खड़ा मुस्कुराता और कहता था ,बस एक वार में ही भाग निकले। मुग़ली वार सहना कोई आसान काम नहीं।
दुसरे दिन मोटर गाड़ी वालो ने थाने में ठेलेवाले के खिलाफ तहरीर दे दी। थाने के दरोगा ने ठेलेवाले को बुलवा लिया। दरोगा ने पूछा 'क्या तुमने इनको मारा है '? बूढ़ा चुपचाप खड़ा रहा। दरोगा ने फिर पूछा ,पास खड़े एक आदमी ने बताया की साहब यह बहरा है। फिर दरोगा ने पास जाकर ज़ोर से पूछा क्या तूने इन्हे मारा है। बूढ़े ने कहा हां मेने मारा है पहले इन्होने मुझे मारा उसके बाद मेने जवाब में इन्हे मारा। दरोगा ने बूढ़े गरीब लाचार ठेलेवाले को हवालात में ले जाने की आज्ञा दे दी।
सिटी मजिस्ट्रेट के यहाँ बूढ़ा पुलिस की हिरासत में था और दोनों वादी भी वहा मौजूद थे। कोर्ट इंसेप्क्टर ने घटना बयान की। अदालत ने ठेलेवाले का भी बयान सुनना चाहा। बूढ़े ठेलेवाले ने अपना बयान देना शुरू किया।
मेरा नाम जफ़र सुल्तान है। बादशाह बहादुरशाहजफर के भाई मिर्ज़ा बाबर का में बेटा हू। दादा भारतवर्ष के सम्राट मोइनुदीन अकबरशाह थे। ग़दर के बाद हज़ारो कठनाईया झेलने के बाद देश ,देश घूमता फिरता दिल्ली आया, और ठेला चलाने लगा। बहरेपन की वजह से मोटर की आवाज़ मेरे कानो में नहीं आयी इस लिए ये हादसा हुआ। मोटर वालो ने मेरी उम्र तक का लिहाज़ न करा और मुझे मारने लगे चार कोड़े खाने के बाद मेने एक वार किया। अगर आप इन सज्जनो का न्याय करना चाहें तो में आप के फैसले के सामने सर झुकाये खड़ा हु आप जो सज़ा दें मुझे मंज़ूर है।
बूढ़े के बयान से अदालत में सन्नाटा छा गया। मजिस्ट्रेट साहब जो अंग्रेज़ थे कलम मुँह में दबाये हसरत भरी निगहाओं से बूढ़े को देखने लगे। अदालत ने सम्मानपूर्वक राजकुमार को छोड़ दिया। नशे की हालत में गाड़ी चलाने की वजह से गाड़ी वालो पर 10 -10 रूपए का जुरमाना और करा।
अदालत में बैठा एक पत्रकार राजकुमार की बाते ग़ौर से सुन रहा था. जिसने अदालत के बहार निकलकर राजकुमार से ग़दर के समय उन पर बीती बातों को सुनने की इच्छा ज़ाहिर की. ठेलेवाले राजकुमार हॅसे और बोले क्या तुम सुन सकोगे , उन मुसीबतों को, तो फिर शाम के समय घर आ जाना इतना कहकर बूढ़े राजकुमार वहां से चले गए। शाम के समय पत्रकार ठेलेवाले के घर को खोजता हुआ उनके घर पहुंचा। घर क्या था , बस छप्पर का एक झोपड़ा बहार आँगन में दो बैल और एक गाय बंधी थी। भीतर एक तख्त और एक पलंग बिछा हुआ था जिसपर चांदनी बिछी हुई थी। जिससे दीन ,मेहनती राजकुमार की मनोवर्ती का पता चलता था। राजकुमार ने पत्रकार को बैठने के लिए कहा और जलपान कराया। उसके बाद राजकुमार ने अपनी आपबीती शुरू की।
मैं मिर्ज़ा बाबर का बेटा हू मिर्ज़ा बाबर बहादुरशाह जफ़र के भाई थे। मैं अपने बाप का बड़ा लाडला बेटा था। संताने और भी थीं पर अपनी माँ के मैं इकलौता था। मेरे पिता की मर्त्यु ग़दर से पहले ही हो गई थी। जब अंग्रेज पंजाब से मदद लेकर दिल्ली आय और उसे जीत लिया, तो बादशाह सहित सब नगर वासी भाग निकले। मेरी माँ अंधी थी और आए दिन की बीमारी से और कमज़ोर हो रही थी। रथ में सवार तक न हो सकती थी, दो इस्त्रियो की मदद से मेने किसी तरह उन्हें रथ में सवार किया और खुद भी उसमे बैठ कर दिल्ली से निकले। बादशाह और सब हुमायूँ के मख़बरे गए थे ,परंतु मैं करनाल के लिए निकला।
वहाँ मेरे एक अच्छे दोस्त थे जो करनाल के अच्छे रईस थे। रथवालो ने कहा गुड़गांव से होते हुए करनाल चलें जिससे सैनिको से भी बच जायँगे। गुड़गांव तक तो हम आनंद पूर्वक चले गए. कुछ लूटेरे और अंग्रेजी सेना मिली भी। जिनसे हमने टाल मटोल कर किसी तरह जान बचायी। हम चलते रहे शाम तक ही चले. रात को एक गांव के पास रुके जहाँ हमारे बेलों की चोरी हो गयी ,और रथवाले भाग गए।
सुबह मुझे बहुत चिंता हुई। गांव में जाकर किराए की गाड़ी मांगी लेकिन गांव में गाड़ी नहीं मिली ,गांव के चौधरी ने मुझे आश्वासन दिया की में दूसरे गांव से गाड़ी का इंतज़ाम करता हू , तब तक तुम अपनी माँ के साथ हमारे घर पर रुक जाओ। मेने उन पर विश्वास किया और माँ को लेकर चौधरी के घर चला गया। और सारा सामान गहने वग़ैरहा घर में रख कर चारपाई पर बैठ गए। थोड़ी देर में ही गांव वालो ने हल्ला मचाया की अंग्रेज़ी सेना आ रही है। चौधरी दौड़ा हुआ मेरे पास आया और बोला की जल्दी यहां से भाग जाओ वरना हम भी तुम्हारे चक्कर में फस जायँगे। में बहुत घबराया और चौधरी से बोला की चौधरी रहम कर अंधी माँ को लेकर में कहा जाऊ।
इतना सुनकर चौधरी ने मुझे मारना शुरू कर दिया ,माँ पर हाथ उठा ते ही मेने भी चौधरी के एक मार दिया। ये सब देखकर गांव वाले इक्कठा हो गए और मुझे मारने लगे में बेहोश हो गया। जब होश आया तो मेने अपने आप को जंगल में पाया माँ सिरहाने बैठी रो रही थी। और कह रही थी की बेटा गांव वालो ने हमे लूट लिया। वह बड़ा कठिन समय था।
अंधी माँ चारों और सन्नाटा, वैरियों का भी डर घावों की पीड़ा, करू तो क्या करू। माँ ने हिम्मत बाँधी और कहा बेटा उठो हिम्मत करो यहां जंगल में पड़े रहने से कोई फ़ायदा नहीं। में हिम्मत कर के खड़ा हुआ घायल अवस्था में ही. मैं ,अंधी माँ को लेकर चल पड़ा कभी माँ ठोकर खा के गिर जाती उसे संभालता। दो वक़्त से हमने कुछ न खाया था। बस ऐसा समय खुदा किसी को न दे। दोपहर तक हम चले फिर मेरी हिम्मत जवाब दे गयी और मै बेहोश होकर गिर पड़ा। माँ मेरा सर अपने घुटनो पर रख कर बैठ गई. और रोते हुए खुदा से दुआ मांगने लगी। इतने में एक लूटेरा जंगल से आ निकला और बूढी अंधी माँ से बोला ,बुढ़िया तेरे पास जो कुछ है मुझे दे दे। माँ ने कहा मेरे पास इस घायल बीमार के अलावा और कुछ भी नहीं। इतने में लूटेरे ने माँ के सर में डंडे से वार किया ,माँ की चीख निकली , हे निर्दयी मेरे बेटे को न मारयो।
मेने बेहोशी की हालत में उठने का प्रयास भी किया मगर फिर गिर पड़ा। लूटेरा माँ के और मेरे कपडे उतार के ले गया और हमे नंगा कर के भाग गया। थोड़ी देर में ही माँ ने दम तोड़ दिया। मेने हिम्मत करके वही से रेत समेटी और शव को ढक दिया। ना कफ़न नसीब हुआ और न क़ब्र। मै थककर एक पेड़ के निचे बैठ गया। थोड़ी देर में एक सैनिक वहाँ से गुज़र रहा था। मुझे देखकर वह मेरे पास आया ,मेने उसे पूरा घटनाक्रम सुनाया उसने तरस खा कर मुझे एक कपडा दिया जिसे मैंने लपेट लिया। और सैनिक मुझे घोड़े पर बैठा कर छावनी में ले आया। जहां उसने मेरी खूब मरहम पट्टी की जिससे मेरी हालत कुछ ठीक हो गई।
वह सिपाही मुझे अपने घर ले आया और मुझे वही रख लिया। मै भी उसकी वहीं रहकर सेवा करने लगा। कुछ दिनों बाद , मैं फ़क़ीर होकर नगर नगर घूमने लगा। जब बम्बई गया तो खैराती दल के साथ मक्का चला गया। वहाँ 10 साल रहा। इसी प्रकार अन्य तीर्थ स्थानों के दर्शन करता हुआ बगदाद आया। बगदाद से करांची और वहाँ से दिल्ली आया। दिल्ली आकर मेने नौकरी की जिससे मेने कुछ पैसे बचाकर अपना निजी ठेला बना लिया। अब इसी से गुज़र बसर है।
यह सब सुनकर पत्रकार ने राजकुमार से उसे लेख बद्ध करने की आज्ञा मांगी। राजकुमार ने कहा अवशय लिखो। मगर यह भी लिखना की हर बीती हुई बात , हर बिता हुआ समय , और हर प्रकार का बीता हुआ सुख दुख अच्छे और बूरे ज़रूर होते हैं। मगर वे उपदेशपूर्ण ज़रूर है।
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