मुज़फ्फरनगर के जानसठ कस्बे की तंग गलियों और पुराने शहर की दीवारों पर अगर आप कभी गौर से नज़र डालें, तो वहां कुछ ऐसे शब्द नज़र आएंगे जो दिल को छू जाते हैं। ये सिर्फ रंग-बिरंगे अक्षर नहीं होते, बल्कि इंसानियत की आवाज़ होते हैं — मोहब्बत, भाईचारा और सत्य का पैग़ाम। और इन शब्दों के पीछे एक नाम है: सिकंदर ज़ैदी।
दीवारों पर लिखी जाती है मोहब्बत की कहानी
पिछले 21 वर्षों से सिकंदर ज़ैदी बिना किसी प्रचार या शोर-शराबे के, कस्बों, गाँवों और शहरों की दीवारों को एक चलते-फिरते दरवेश की तरह सजाते आ रहे हैं। वह दीवारों पर लिखते हैं — मौला अली, हज़रत मोहम्मद साहब, और इमाम हुसैन जैसे महान इस्लामी शख्सियतों के कहे हुए वो हदीस और क़ौल, जो इंसानियत, अमन और सच्चाई की राह दिखाते हैं।
सिकंदर ज़ैदी पवित्र कुरान की आयतों के साथ-साथ श्रीमद्भगवद गीता के श्लोक भी दीवारों पर उकेरते हैं — ताकि हर धर्म, हर जाति का इंसान इन बातों से प्रेरणा ले सके। उनका मक़सद मज़हब से ऊपर उठकर इंसानियत को आम करना है।
इनका एक खूबसूरत स्लोगन है:
ये तो सुना था होते हैं दीवारों के भी कान, लो देखो दीवारें यहाँ बोलने लगीं!"
यह पंक्ति उनके काम की गहराई और ख़ामोशी में छिपी आवाज़ को बख़ूबी बयां करती है।
पेशे से मर्चेंट नेवी, दिल से इंसानियत का पुजारी
सिकंदर ज़ैदी एक आम इंसान नहीं, बल्कि एक ऐसे इंसान हैं जिन्होंने अपनी ज़िंदगी को दो हिस्सों में बाँट दिया है — 6 महीने मर्चेंट नेवी की नौकरी, और 6 महीने इंसानियत की खि़दमत।
जहाँ एक ओर वह समुद्रों में सफर करके देश के लिए कमाई करते हैं, वहीं दूसरी ओर वापस लौटकर वो अपने वक़्त को मुफ़्त में लोगों के लिए, समाज के लिए, और आने वाली नस्लों के लिए समर्पित कर देते हैं। न कोई एनजीओ, न कोई फंड, और न ही किसी सरकार से उम्मीद — ये खि़दमत सिर्फ दिल से निकलती है।
लोग पढ़ते हैं, सोचते हैं, बदलते हैं
जब कोई राह चलता व्यक्ति गलियों की दीवार पर लिखा पढ़ता है –
कई बार बच्चे पूछते हैं अपने मां-बाप से कि ये क्या लिखा है? और वहीं से एक नई सोच की शुरुआत होती है। सिकंदर ज़ैदी का यह काम एक ख़ामोश क्रांति है — जो बिना नारे, बिना पोस्टर, सिर्फ़ शब्दों और स्याही से लोगों को बदल रही है।
सच में एक मिसाल हैं सिकंदर ज़ैदी
आज के दौर में जब समाज बँटवारे, नफ़रत और सियासत के शोर से घिरा हुआ है, सिकंदर ज़ैदी जैसे लोग उम्मीद की एक रोशनी की तरह हैं। वे हमें याद दिलाते हैं कि मज़हब का मतलब दीवारें खड़ी करना नहीं, बल्कि दिलों को जोड़ना है।
अंत में...
सिकंदर ज़ैदी ने हमें यह सिखाया है कि इंसानियत कोई बड़ा मंच नहीं मांगती। बस एक दीवार चाहिए, एक ब्रश और दिल में मोहब्बत होनी चाहिए। उनके लिखे हर शब्द में सिर्फ़ इंक़लाब नहीं, बल्कि करुणा है।
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