इंसान या आवारा कुत्ते- जानवरों के लिए संवेदनाएँ जगाना आसान है, लेकिन इंसानों की पीड़ा हमें बोझ लगती है।

क्या यह सवाल आपके मन में नहीं उठता है कि क्या हमारी संवेदनाएँ इंसानों से ज़्यादा जानवरों के लिए जागती हैं?

क्या हमने अपने ही समाज के पीड़ितों और बेसहारा लोगों की तकलीफ़ों को सामान्य मान लिया है?

क्या एक बेगुनाह इंसान की सड़ती ज़िंदगी, एक भूखे बच्चे का आँसू, या एक अकेली माँ की तन्हाई हमारे दिलों को नहीं छूती?



जब सुप्रीम कोर्ट यह आदेश देता है कि आवारा कुत्तों को सड़कों से हटाकर सुरक्षित स्थानों पर रखा जाए, तो अचानक समाज का एक बड़ा वर्ग सक्रिय हो उठता है।
जानवरों की सुरक्षा पर बहस छिड़ जाती है, भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ता है।अचानक सोशल मीडिया से लेकर ड्राइंग रूम तक करुणा की बाढ़ आ जाती है।

हमारी सवेदनाएँ उनके लिए क्यों नहीं जागती जो लोग अपनी ज़िंदगी की सबसे कठिन लड़ाई लड़ रहे हैं। 
यहाँ हज़ारों बेगुनाह लोग सालों से जेलों में सड़ रहे हैं, लाखों बुज़ुर्ग माँ-बाप अपने ही बच्चों से ठुकराकर वृद्धाश्रमों में मरने को मजबूर हैं, और शहरों के फ्लाइओवरों के नीचे इंसान अपनी ज़िंदगी की आख़िरी साँसें गिन रहे हैं। लेकिन इनकी ओर देखने वाला शायद कोई नहीं।

इंसान का दर्द? अरे वह तो “नॉर्मल” है।
जेलों में सड़ना, भूखे पेट सोना, या वृद्धाश्रम में मर जाना — यह सब इस देश में मामूली बातें हैं।
लेकिन कुत्ते सड़क से उठाकर कहीं और भेज दिए जाएँ, तो समाज की नींद उड़ जाती है।
शायद हमने तय कर लिया है कि इंसान की पीड़ा अब कोई मायने नहीं रखती।
बच्चे भूख से मरें, बुज़ुर्ग अकेलेपन से, मज़दूर बिना घर के सड़कों पर — यह सब “नेचुरल प्रोसेस” है।

यह कैसी संवेदनाएँ हैं, जो इंसान के आँसुओं को देखकर नहीं पिघलतीं, लेकिन कुत्ते की भौंक पर आहट ले लेती हैं
क्या यह वही समाज है जो खुद को “वसुधैव कुटुंबकम्” का वाहक कहता है
या फिर अब इंसानियत हमारे दिलों से निकलकर सिर्फ़ सोशल मीडिया पोस्ट्स और NGO के बैनरों तक सीमित हो गई है। 

सच्चाई यह है कि इंसानों की तकलीफ़ हमें अब सुन्न कर चुकी है।
हमने उनकी बेबसी को इतना देखा है कि अब उसमें संवेदना ढूँढने की कोशिश भी नहीं करते।
और यही हमारे समाज का सबसे बड़ा पतन है—जहाँ जानवरों के लिए संवेदनाएँ जगाना आसान है, लेकिन इंसानों की पीड़ा हमें बोझ लगती है।

संवेदनशील होना बुरी बात नहीं है, लेकिन अगर हमारी संवेदनाएँ चयनात्मक होकर केवल जानवरों तक सीमित रह जाएँ और इंसानों की पीड़ा हमें उदासीन न बनाए, तो यह हमारे समाज के खोखलेपन की सबसे बड़ी निशानी है।

सच्ची इंसानियत वही है जो हर उस प्राणी के लिए करुणा महसूस करे—चाहे वह इंसान हो या जानवर। लेकिन प्राथमिकता हमेशा उस इंसान को मिलनी चाहिए जिसकी ज़िंदगी आज बेसहारा और बेबसी में तड़प रही है।

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