भारत की ग्रामीण आबादी में कोरोना से बचाव के नियमो का पालन करना कितनी मुश्किल समस्या है
भारत में करोना के मामले तेजी से बढ़ने लगे अभी तक महानगरों और बड़े शहरों में फैल रहा कोरोना अब बहुत तेजी से ग्रामीण भारत में पांव पसारने लगा है।
भारत जैसे विकासशील देश में क्वारंटाइन के लिए अलग कमरा यानि होम क्वारंटाइन में रह कर बीमारी से बचने की कल्पना एक ख्वाब जैसी लगती है। जिस ख्वाब को देश की आबादी का कुछ प्रतिशत हिस्सा ही देख सकता है।फिर इस ख्वाब को कानून में ढाल कर भारतीय समाज पर लादना कितना सही है? जहां की अधिकतर ग्रामीण आबादी को दो वक्त का खाना मिलना मुश्किल हो, एक ऐसा समाज जो आज भी कई मूलभूत समस्याओं से जूझ रहा है। वहां क्वारंटाइन हाइजीन और सफाई की बात करना थोड़ा कठिन लगता है।गांव में एक खाली पेट और खाली जेब वाला इंसान जिसे एक बड़े परिवार का पेट पालना है, वह दिन में कितनी बार हाथ धोने की सोच पायेगा गांव की संस्कृति में लेन देन, साथ उठना-बैठना और एक साथ मिलकर जानवरों को चराना एक आम बात है। यहाँ लोगो के साथ साथ गाय भैस भी होते है, वह सरकारी कायदे कानून नही समझते हैं। उन्हें भी भूख लगती है। उनको तालाब ले जाना पड़ता है। चराना और घुमाना पड़ता है। उनसे नहीं कहा जा सकता कि एक महीने तक खूंटी से बंधे रहो, क्योंकि बाहर करोना है यहां तक कि गांव में कुछ घर तो आपस में ऐसे हैं जिनकी दीवारों के बीच दो ईटें, बिना सीमेंट की बनाई जाती हैं।जिनके बीच दूध-दही, साग सब्जी और माचिस तक का लेन देन होता है गांव में बहुत सी चीजे सामूहिक रूप में होती हैं। जिनसे प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से पूरा गांव जुड़ा होता है। हर परिवार का परिवेश और शिक्षा का स्तर, दूसरे परिवार से अलग है।जैसे पांच परिवारो के बीच में एक सरकारी नल है और प्रत्येक परिवार में आठ सदस्य हैं ऐसी स्थिति में क्या वे पानी पीना तो छोड़ सकते हैं नहीं ये सब कानून यहाँ लागु नहीं किये जा सकते है।फिर हम गांवों को किस बुनियाद पर क्वारंटाइन और हाइजीन की कसौटी पर कसते है
क्या इन सब उपायों को कानून में ढाल कर भारतीय समाज पर लादना सही है?
हम जो नियम विदेश से उठा कर अपने देश पर लाद रहे हैं, क्या जमीनी स्तर पर वह कारगर सिद्ध हो पायेंगे? क्या हमें नियम बनाते समय अपनी सांस्कृतिक, भौगोलिक, आर्थिक और शैक्षणिक परिस्थितियों का जायजा नही लेना चाहिए और क्या उसी के आधार पर नीति तैयार नहीं करनी चाहिए?
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